शक्ति की अवधारणा | IGNOU POLITICAL SCIENCE NOTES

राजनीति विज्ञान में शक्ति की अवधारणा के बारे में आज हम चर्चा करेंगे। राजनीति विज्ञान में शक्ति की विवेचना हमेशा से ही होती आ रही है। इसके बिना राजनीति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। प्राचीन विचारको में प्लेटो अरस्तु व कौटिल्य ने शक्ति व दंड को के महत्व को स्वीकार किया। यह न केवल राजनीतिक व्यवस्था वर्ण सामाजिक गतिशीलता की कुंजी है। समाज विज्ञानों में राजनीति विज्ञान में सत्य की अवधारणा अधिक है जिसे सामर्थ्य से एक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों का समूह दूसरों से अपनी इच्छा मनवाता होता है। अन्य व्यक्तियों से अपना आदर व अपने आदेशों की पालना करवाने के लिए विवश करता है। उसे ही हम शक्ति कहते हैं।

शक्ति परिस्थितियों, निश्चित पदों तथा भूमिकाओं पर निर्भर करती है। यह किसी न किसी रूप में दूसरे को प्रभावित करने की क्षमता है। शक्ति अवधारणा के प्रमुख प्रेरणा स्रोत लासवेल ने शक्तिऔर प्रभाव को पर्यायवाची माना है। उनके अनुसार समाज में कतिपय मूल्य तक मूल्यवान वस्तुओं की प्राप्ति के लिए हर व्यक्ति अपना प्रभाव डालने की चेष्टा करता है। इस प्रभाव चेष्टा में शक्ति का भाव निहित होता है। दूसरों को नियमित करने एवं उनसे अपना मनचाहा व्यवहार कराने और उन्हें मनचाहा व्यवहार करने से रोकने के सामर्थ्य योगिता को शक्ति का नाम दिया जाता है। समाज में शक्ति कहीं रूपों में पाई जाती है।

शक्ति के विभिन्न रुप –

पहला राजनीति शक्ति –

राजनीतिक समाज में कानून, पुलिस सेना, अफसरशाही, न्यायालय, राजनीतिक दल, दबाव, समूह, जनमत इत्यादि में राजनीतिशक्ति पाई जाती है। प्रोफेसर इलियट ने कहा कि अपनी इच्छा के बलपूर्वक मनवा सकने की क्षमता को ही राजनीतिक शक्ति कहा जाता है। बेशक उसका उपयोग राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाए। वास्तव में राजनीति शक्ति नीतियां बनाने, नीतियों को प्रभावित करने, नीतियों को लागू करने तथा नीतियों के उल्लंघन पर दंड देने की शक्ति को कहते हैं।

दूसरा आर्थिक शक्ति –

आर्थिक संसाधनों के मालिक आर्थिक शक्ति रखते हैं जो राजनीतिक शक्ति को भी अपने हित में प्रभावित करती है। रॉबर्ट डहल ने स्वीकार किया कि आर्थिक शक्ति का राजनीतिक शक्ति पर बड़ा असर होता है। वही कार्ल मार्क्स ने कहा कि आर्थिक शक्ति ही मानव के राजनीतिक शक्ति को दिशा निर्देश प्रदान करती है।

तीसरा वैचारिक शक्ति –

जनता का राजनीति में हिस्सा लेने से राजनीति विचारधारा का एक महत्वपूर्ण स्थान है जो वर्तमान में अपने आप में एक शक्ति बन गया है परंतु वास्तविक शक्ति लोगों की भावनाओं में निवास करती है। वैचारिक शक्ति का वास केवल विचारों, परंपराओं तथा नैतिकता में ही नहीं बल्कि धार्मिक संस्थाएं, राजनीतिक दल, ट्रेड यूनियन, शैक्षणिक संस्थाएं व जनसंपर्क के साधनों में भी है।

पॉल जे ने वैचारिक शक्ति को राज्य की प्रणाली का अंग माना तथा राज्य की शक्ति को स्वीकार किया है। इस के स्रोत अनेक होते हैं जिसमें बल, बल प्रयोग, राजनीतिक सत्ता, प्रशासनिक पद सम्मान, आर्थिक साधन, व्यक्तिगत आकर्षण प्रेम का प्रभाव नैतिक आचरण प्रमुख है जो समय व परिस्थितियों के अनुसार शक्ति के साथ बदलते रहते हैं।

शक्ति के मुख्य स्रोत –
  • पहला आंतरिक स्रोत आंतरिक स्रोत के अंतर्गत ज्ञान, व्यक्तिगत सम्मान, आत्म, नियंत्रण, नैतिकता, प्रेम आदि ऐसे तत्व है जो हमारेे शक्ति प्राप्ति के साधन है। इसके माध्यम से व्यक्ति अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने की क्षमता रखता है। ज्ञान के द्वारा न केवल नए लक्ष्यों एवं अवसरों को भी प्राप्त करता है। किसी का व्यक्तित्व और नैतिक बल ही शक्ति का आधार बन जाता है। जैसे सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी।
  • दूसरा बाहरी,स्रोत, शक्ति के बाहरी स्रोत में आर्थिक साधन तथा परिस्थितियों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। आज जिसके पास आर्थिक साधन है, वह महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति का उपयोग करता है। शक्ति की दृष्टि से मनुष्य का सबसे बड़ा संगठन राज्य है जो आवश्यकता पड़ने पर समाज के सारे साधनों को अपने हाथ में ले लेता है। बल प्रयोग भी शक्ति का एक बाहरी स्रोत है।

निसंदेह शक्ति की अवधारणा असीम नहीं है। वह लगातार सीमित होती रही है। सच तो यह है कि हिंसा के बल पर जिस समाज का निर्माण किया गया था, उसी के द्वारा उसका विनाश में हो गया। शक्ति की अभिव्यक्ति केवल दबाव और दमन नहीं है बल्कि एक स्थाई प्रभाव है जो तभी रह सकता है जबकि लोकहित में ध्यान में रखकर शक्ति का प्रयोग किया जाए।

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